Stories of Hope & Transformation

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Creating Tangible Change, One Life at a Time

"Through Roti Bank, Kapda Bank, Education Kits, and Skill Training, we've directly impacted thousands of lives in our community. Every number represents a story of hope, dignity, and transformation."

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"जिंदगियाँ बदलती देखिए"

"वो माँ जिसके बच्चे को पहली बार कॉपी-किताब मिली... वो बुजुर्ग जिसने पहली बार गरम भोजन खाया... वो महिला जो आज अपने पैरों पर खड़ी है। ये सिर्फ कहानियाँ नहीं, आपके सहयोग का असर है।"

"कमला देवी: दो वक्त की रोटी से लेकर अपनी दुकान तक का सफर"

कमला देवी (42 वर्ष) की कहानी उस दिन शुरू हुई जब उनके पति का निधन हो गया। तीन छोटे बच्चों के साथ, वह दिन में 100-150 रुपये की मजदूरी करके गुजारा करती थीं। कई दिन तो बच्चों को खिलाकर खुद भूखे सोना पड़ता था। "सबसे मुश्किल दिन वो थे जब बच्चे रोते थे - 'माँ, भूख लगी है'... और मेरे पास जवाब नहीं होता था।" फिर संगम सेवालय का रोटी बैंक उनके इलाके में आया। पहले हफ्ते तो कमला को शर्म आती थी लाइन में खड़े होने में। लेकिन बच्चों का पेट भरता देख, वह हर रोज आने लगीं। एक दिन हमारी टीम ने देखा कि कमला सिलाई का छोटा-मोटा काम जानती हैं। हमने उन्हें सिलाई सेंटर ज्वाइन करने के लिए कहा। आज कमला अपने घर के एक कोने में छोटी सी दर्जी की दुकान चलाती हैं। उनकी बड़ी बेटी ने 12वीं की परीक्षा पास की है, और वह कहती हैं: "रोटी बैंक ने सिर्फ हमारा पेट नहीं भरा, बल्कि हमें जीने की नई उम्मीद दी। आज मैं न सिर्फ अपने बच्चों को पाल रही हूँ, बल्कि उन्हें अच्छी शिक्षा भी दे पा रही हूँ।"

"रमेश का सफर: स्कूल की दहलीज लाँघने का साहस"

रमेश (14 वर्ष) के पिता सड़क किनारे छोटी सी चाय की दुकान चलाते हैं। महीने की कमाई इतनी कि दो वक्त की रोटी ही मुश्किल से जुट पाती थी। रमेश कभी स्कूल नहीं गया था - उसकी जिम्मेदारी थी पिता की दुकान पर बर्तन साफ करना और ग्राहकों को चाय पहुँचाना। "मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि किताबें छू पाऊँगा," रमेश याद करते हुए कहते हैं। जब संगम सेवालय की टीम ने उनके घर का सर्वे किया, तो रमेश दुकान पर काम कर रहा था। उसकी उम्र के बच्चों को स्कूल जाते देखकर टीम ने उसके पिता से बात की। शुरू में उन्होंने मना कर दिया - "पढ़ाई से पेट नहीं भरता।" लेकिन टीम ने हार नहीं मानी। हमने रमेश को एजुकेशन किट दी - यूनिफॉर्म, किताबें, जूते और स्कूल बैग। सबसे महत्वपूर्ण, हमने उसके पिता को समझाया कि शिक्षा ही उनके बेटे को इस गरीबी के चक्र से बाहर निकाल सकती है। आज रमेश 6वीं कक्षा में पढ़ता है। वह कहता है, "पहले मैं ग्राहकों को चाय देता था। आज मैं अपनी कॉपी में होमवर्क पूरा करता हूँ। मेरे शिक्षक कहते हैं कि मैं गणित में बहुत अच्छा हूँ।" उसके पिता अब कहते हैं, "मैंने अपनी जिंदगी में कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा। पर आज जब रमेश यूनिफॉर्म पहनकर स्कूल जाता है, तो लगता है मेरे सपने सच हो रहे हैं।"

"सीता देवी: वो 200 रुपये जिसने बदल दी एक परिवार की तकदीर"

सीता देवी (38 वर्ष) के पति मजदूरी करते थे। लॉकडाउन के दिनों में जब काम बंद हुआ, तो परिवार के सामने भूखों मरने की नौबत आ गई। सीता देवी रोज सुबह 4 बजे उठकर 3 किलोमीटर पैदल चलकर हमारे रोटी बैंक से भोजन लेने जाती थीं। "एक दिन मैंने स्वयंसेवक से पूछा - 'क्या मैं यहाँ कुछ काम कर सकती हूँ? बस खाना लेकर जाने से अच्छा है, कुछ कमाकर ले जाऊँ'" हमने उन्हें हमारे सिलाई केंद्र में प्रशिक्षण लेने को कहा। पहले महीने की ट्रेनिंग के बाद, उन्होंने अपने गाँव की 5 और महिलाओं को जोड़ा। हमने उन्हें एक सिलाई मशीन उधार दी। आज सीता देवी की एक छोटी सी यूनिफॉर्म सिलाई की यूनिट है। वह स्थानीय स्कूलों को यूनिफॉर्म सप्लाई करती हैं। पिछले महीने उन्होंने 18,000 रुपये कमाए। सीता कहती हैं - "उस वक्त के 200 रुपये के भोजन ने आज 20,000 रुपये की कमाई दिलवाई। संगम सेवालय ने सिर्फ भोजन नहीं दिया, बल्कि जीने का एक नया तरीका सिखाया।" उनकी बेटी अब कॉलेज में पढ़ती है, और कहती है - "माँ ने साबित कर दिया कि उम्र और हालात कोई मायने नहीं रखते, अगर इरादे मजबूत हों।"

"पप्पू कुमार: कचरा बीनने वाला हाथ, जो आज किताबें उठाता है"

11 साल का पप्पू अपने पिता के साथ सड़क किनारे कचरा बीनता था। सुबह 5 बजे से शाम 7 बजे तक - प्लास्टिक की बोतलें, कागज, लोहा जो कुछ भी हाथ लग जाए। दिन भर में 50-60 रुपये की कमाई। पढ़ाई का सवाल ही नहीं उठता था - दो वक्त की रोटी का जुगाड़ ही बड़ी बात थी। "मैंने स्कूल के बच्चों को यूनिफॉर्म पहनकर जाते देखा था... पर हमारी जिंदगी में तो वो सपना भी महंगा था," पप्पू बताते हैं। हमारी टीम ने उन्हें कचरा बीनते देखा। सबसे पहले रोटी बैंक से उनके परिवार को नियमित भोजन मिलना शुरू हुआ। फिर हमने पप्पू के पिता से बात की - "अगर आप पप्पू को स्कूल भेजेंगे, तो हम उसकी पढ़ाई का सारा खर्च उठाएँगे।" शुरुआती संकोच के बाद, पिता मान गए। पप्पू को पहली बार स्कूल यूनिफॉर्म पहनने में तीन दिन लगे - वह डर रहा था कि कहीं गंदा न हो जाए। आज पप्पू 6वीं कक्षा में है। गणित में उसके 95% अंक आए हैं। वह कहता है, "पहले मैं कचरे में से कागज बीनता था... आज उन्हीं कागजों पर अपने सपने लिखता हूँ। मैं टीचर बनूँगा, ताकि मेरे जैसे और बच्चे पढ़ सकें।" उसके पिता अब छोटी सी ठेला गाड़ी से सब्जी बेचते हैं, और कहते हैं, "मेरी पीढ़ी तो कचरे में ही खत्म हो गई, पर मेरा बेटा अब डॉक्टर-टीचर बनेगा।"

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